Sunday, December 14, 2008

जन-प्रतिनिधि अपना कर्तव्य निभाएं

संविधान में जनता का जो कर्तव्य था वह उसने बखूबी निभाया. जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया और अपने प्रतिनिधि चुन लिए. अब इन जन-प्रतिनिधियों को अपना कर्तव्य निभाना है. 

पहला कर्तव्य है - जन-प्रतिनिधि यह न भूलें:
- कि वह जनता के प्रतिनिधि हैं, शासक नहीं,
- कि भारत एक प्रजातंत्र है, राजतन्त्र नहीं.

दूसरा कर्तव्य है - जन-प्रतिनिधि ऐसा कोई कार्य न करें:
- जिससे जनता को शर्मिंदा होना पड़े,
- संविधान का अपमान हो,
- कानून और व्यवस्था बिगड़े.

तीसरा कर्तव्य है - जन-प्रतिनिधियों के व्यवहार में: 
- ईमानदारी, शुचिता, नेतिकता हो,
- गुटबंदी, जाति-धर्म-भाषा पर अलगाव न हो.

मुख्य कर्तव्य - जन-प्रतिनिधि स्वयं को जनता का ट्रस्टी मान कर कार्य करें. पाँच वर्ष बाद जब वह राज्य/देश का प्रबंध दूसरे जन-प्रतिनिधियों को सौंपें तब राज्य/देश में सर्वांगीण विकास नजर आए. 

Wednesday, December 10, 2008

कौन जीता - नेता या जनता?

भारत में जो लोकतंत्र है, उसमें नेता सब से ऊंचा होता है. हारने वाले नेता कहते हैं, "जनता जनार्दन का जनादेश सिरोधार्य". जीते हुए नेता अगर बहुत मेहरबान हुए तो जनता का धन्यवाद कर देते हैं और चल पड़ते हैं अपना और अपनों का घर भरने के लिए. चुनाव के बाद जो भी कहा जाता है वह सब शब्दों का हेर फेर होता है, इस में वास्तविकता न के बराबर होती है. 

जनता चुनाव में वोट डालती है, पर नेताओं के लिए, अपने लिए नहीं. जनता के वोट से नेता जीतते हैं, जनता नहीं. नेता का नाम और लेबल अलग-अलग हो सकता है, पर जीतता नेता ही है, या यह नेता या वह नेता, जनता कभी नहीं जीतती. चुनाव एक माध्यम है नेता जी को अपनी सत्ता प्राप्त करने का. उस के लिए वह जनता का प्रयोग करते हैं, कि भाई आओ और वोट डालो, बताओ किस से शासित होना पसंद करोगे आने वाले पॉँच साल के लिए? जनता जाती है और पाँच साल के लिए अपने शासक के नाम का बटन दबा आती है. जो जीत जाता है, जम कर शासन करता है. जनता की ऐसी-तैसी कर देता है. जनता मन ही मन सोचती रहती है कि देख लेंगे अगले चुनाव में. फ़िर चुनाव होता है. फ़िर जनता बटन दबा आती है किसी नेता के नाम पर, और पाँच साल के लिए फ़िर गुलाम हो जाती है. शासक का नाम और लेबल हो सकता है बदल जाए, पर शासक और गुलाम का रिश्ता बैसा ही रहता है. 

इस बार भी नेता ही जीते हैं. जनता फ़िर हारी है. मजे की बात यह है कि हारने के लिए जनता सुबह उठ कर हमेशा की तरह मतदान केन्द्र पर गई और अपनी हार मशीन में बटन दबा कर बंद कर आई. अब गुलामी का नया पाँच साल का दौर फ़िर शुरू. 

Thursday, December 4, 2008

राजनीति प्रजा की सेवा के नाम पर धोखा है

आज भारत में राजनीति सेवा का साधन न रहकर एक व्यवसाय बन गयी है और व्यवसाय व्यक्ति अपने फायदे के लिये करता है समाजसेवा के लिये नहीं. आज राजनीतिबाज जो कर रहे हैं वह एक धोखा है जो प्रजातंत्र के नाम पर वह जनता को दे रहे हैं. 

यह शब्द 'राजनीति' ही सारे फसाद की जड़ है. भारत में प्रजातंत्र है, अब प्रजातंत्र में भला राजनीति का क्या काम? शब्दों में बहुत शक्ति होती है. शब्द अक्षर से बनते हैं और अक्षर ब्रह्म का एक रूप है. हम जो शब्द प्रयोग करते हैं वह हमारे सोच का प्रतिनिधित्व करता है और बाद में हमारे कर्मों को प्रभावित करता है. यह कहना कि 'मैं राजनीति में प्रजा की सेवा के लिए आया हूँ', एक धोखा है. राजनीति का अर्थ है वह नीतियाँ बनाना और पालन करना जो राज करने के लिए जरूरी हैं. प्रजा की सेवा के लिए जो नीतियाँ बनेंगी उनका एकमात्र उद्देश्य प्रजा की सेवा करना होगा. 

हमारे देश में प्रजा की सेवा के नाम पर राजतन्त्र चलाया जा रहा है. जनता जिन्हें अपना प्रतिनिधि चुनती है वह चुने जाने के बाद स्वयं को राजनेता घोषित कर देते हैं, और प्रजा पर शासन करने लगते हैं. कुछ राजनीतिबाजों ने तो परिवार का राज चला रखा है. अगर वह जन-प्रतिनिधि होते तो आज भारत का रूप दूसरा ही होता. कोई जन सेवा के लिए भ्रष्टाचार नहीं करेगा, कोई सेवा करने के लिए हिंसा करके चुनाव नहीं जीतेगा. सेवा एक से ज्यादा व्यक्ति एक साथ कर सकते हैं. राज एक ही व्यक्ति या एक दल या एक कोलिशन करता है. यह लोग अपनी जरूरतों के लिए इकठ्ठा होते हैं,जनता के दुखों से द्रवित होकर नहीं. हाँ यह बात अवश्य है कि ऐसा वह, जनता के लिए कर रहे हैं, कह कर करते हैं. यही वह धोखा है जो आज इस देश में राजनीतिबाज जनता को दे रहे हैं. 

'राजनीति' की जगह 'प्रजानीति' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए. 'राजनेता' की जगह 'जन-प्रतिनिधि' का प्रयोग होना चाहिए. यह जन-प्रतिनिधि एक ट्रस्टी के रूप में काम करें, जैसे भरत ने राम का प्रतिनिधि बन कर अयोध्या का प्रबंध किया था. आज भारत को 'राम राज्य' नहीं 'भरत का प्रबंधन' चाहिए. आज देश को नेता नहीं ट्रस्टी चाहिए. आज जनता को शासक नहीं सेवक चाहिए. दशरथ के राज्य में अन्याय हुआ था, श्रवण कुमार की हत्या, राम को वनवास. राम के राज्य में भी अन्याय हुआ था, सीता को वनवास. पर भरत के प्रबंध में कोई अन्याय नहीं हुआ. यह इसलिए हुआ कि भरत राजा नहीं सेवक थे, राम के प्रतिनिधि थे. वह राम द्वारा मनोनीत अयोध्या के ट्रस्टी थे. 

Wednesday, November 26, 2008

लोकतंत्र का विकल्प

एक पत्रकार ने जैन संत आचार्य महाप्रज्ञ से पूछा - 'लोकतंत्र का विकल्प क्या हो सकता है?'
आचार्य ने उत्तर दिया - 'लोकतंत्र का विकल्प क्यों खोजते हो? शासनतंत्र की जितनी प्रणालियाँ हैं, उन में सबसे अच्छा विकल्प है लोकतंत्र. उस की श्रेष्टता अभी खंडित नहीं हुई है. फ़िर विकल्प की खोज किस लिए? विकल्प खोजना चाहिए लोकतंत्र को चलाने वाले हाथों का, जो हाथ लोकतंत्र की डोर थामने में काँप रहे हैं.' 

लोकतंत्र ने सत्ता को इतना गतिशील बनाया कि वह जाति, सम्प्रदाय, गरीबी, अमीरी - इन सबसे परे जाकर किसी भी योग्य व्यक्ति का वरण कर सकती है. यह लोकतंत्र के चरित्र का सबसे उजला पक्ष है, किंतु लोकतंत्र को चलाने वाले लोग अभी योग्यता की कोई कसौटी ही निश्चित नहीं कर पाये हैं. 

योग्यता की दो कसौटियां हो सकती हैं - चरित्र बल और बौद्धिक छमता. पता नहीं, क्यों लोकतंत्र के साथ अभी इन कसौटियों का मैत्री सम्बन्ध स्थापित नहीं हो रहा है. सत्ता और प्रशासन की कुर्सी पर आसन बिछाने वाले लोगों का अर्थ के प्रति घोर आकर्षण बता रहा है कि लोकतंत्र के सारथि का चरित्र-बल उन्नत नहीं है. अर्जुन को महाभारत की रणभूमि में सारथि मिल गया था. लोकतंत्र का अर्जुन अभी भी सारथि की खोज में है. महाभारत हो रहा है पर अर्जुन को सारथि नहीं मिल रहा है.   

(लोकतंत्र - नया व्यक्ति नया समाज से साभार)  

Monday, November 24, 2008

भारत वर्तमान संकट से कैसे निपटे?

भारतीय व्यवसाय जगत के प्रतिनिधियों के साथ विचार-विमर्श के अवसर पर श्री लालकृष्ण आडवाणी के भाषण के कुछ अंश:

"इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत वर्तमान संकट से सफलतापूर्वक निपटने और इसे वास्तव में, आगे की ओर लम्बी छलांग लगाने के महत्वपूर्ण अवसर में परिवर्तित करने में सक्षम है। तथापि, हम इस बदलाव को सफलता तभी कह सकते हैं जब देश से गरीबी मिट जाए, कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कायाकल्प हो जाए, और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के हमारे भाई-बहन समान अवसरों का लाभ उठाने के लिए आर्थिक रूप से सुदृढ़ बन जाए।" 

Saturday, November 8, 2008

मतदान

वह कहते हैं मतदान करो,
मन कहता है मत दान करो.

मतदान हमारी ड्यूटी है,
यह प्रजातंत्र की ब्यूटी है.

एक थैली के चट्टे-बट्टे,
भ्रष्टाचारी हट्टे-कट्टे.

कैसे इन को मतदान करुँ,
मन कहता है मत दान करुँ. 

Thursday, October 30, 2008

आप क्या सोचते हैं?

हमारा देश भारत एक प्रजातंत्र है. प्रजातंत्र दो शब्दों से बना है, प्रजा और तंत्र. प्रजा क्या है यह आप जानते है, आप ख़ुद ही प्रजा हैं. तंत्र क्या है, यह भी आप जानते हैं, आखिरकार पिछले ६० वर्षों से अधिक समय से आप इस तंत्र को झेल रहे हैं. हम सब को बचपन में यह बताया गया था कि प्रजातंत्र में जनता का तंत्र (सरकार) होता है. आज भी बच्चों को यही बताया जाता है. पर आपका अनुभव क्या है? क्या भारत में जनता का तंत्र है? क्या आप कह सकते हैं कि भारत में जनता की सरकार है या रही है

एक और शब्द जो बहुत अधिक प्रयोग किया जाता है वह है राजनीति, यानि राज करने की नीति. राज करने की बात करना प्रजातंत्र की मूल भावना के बिल्कुल ख़िलाफ़ है, पर हर व्यक्ति इस शब्द का प्रयोग करता है - प्रजा भी और प्रजा पर तंत्र चलाने वाले भी. अक्सर आपको बहुत से प्रजाजन यह कहते  मिल जायेंगे कि अमुक प्रदेश में या केन्द्र में अमुक राजनितिक दल का राज्य है, तंत्र है. राज्य और तंत्र, दोनों को मिला दीजिये, बना राजतन्त्र. यानी हमारे देश में प्रजातंत्र के नाम पर राजतंत्र है. चुनाव के माध्यम से प्रजा अपने प्रतिनिधि चुनती है, पर यह प्रतिनिधि प्रजा का प्रतिनिधित्व करने के स्थान पर प्रजा पर राजतन्त्र चलाते हैं. उसपर मनचाहा अत्त्याचार करते हैं. 

घोषित राजतन्त्र और अघोषित राजतंत्र (प्रजातंत्र) में कुछ अन्तर भी हैं. राजतंत्र में जितनी आसानी से प्रजा अपने राजा से मिल सकती थी, प्रजातंत्र में प्रजा उतनी आसानी से अपने प्रतिनिधियों से नहीं मिल पाती. राजतन्त्र में पता रहता था कि वर्तमान राजा के बाद कौन राजा बनेगा, पर प्रजातंत्र में यह पता नहीं होता कि प्रजा का अगला प्रतिनिधि कौन होगा. हालांकि कुछ लोग अपने परिवार के लोगों को देश पर लादते रहे हैं और अभी भी यह लादना चल रहा है. प्रजातंत्र में किसी को युवराज कहा जाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह लोग प्रजातंत्र के नाम पर राजतंत्र चला रहे हैं. इसमें एक बिल्कुल अपरिचित व्यक्ति भी प्रजा का प्रतिनिधि चुना जा सकता है और उस पर राज कर सकता है. 

मैंने ऊपर चुनाव की बात कही. चुनाव का अर्थ यह लोग क्या लगाते हैं जरा देखिये? कोई कहता है मैं चुनाव लड़ रहा हूँ. कोई कहता है मैं चुनाव में खड़ा हूँ. कोई यह नहीं कहता कि मैंने प्रजा के समक्ष उनका प्रतिनिधित्व करने का प्रस्ताव रखा है. अगर प्रजा मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करेगी तो मैं अगले पाँच वर्षों के लिए लोकसभा या विधान सभा में प्रजा का प्रतिनिधित्व करूंगा. अगर एक से अधिक प्रस्तावक हैं तो चुनाव की प्रक्रिया द्बारा प्रजा अपना प्रतिनिधि चुनेगी. पर यह लोग चुनाव को लड़ाई मानते हैं इस लिए चुनाव में हिंसा होती है. अब कोई सेवा करने के लिए तो हिंसा नहीं करेगा. हिंसा तो तभी करेंगे जब इन के मन में सत्ता की भावना होगी. यानी, आज के प्रजातंत्र में सेवा की नहीं सत्ता की नीति चल रही है, इस लिए शब्द 'राजनीति' प्रयोग किया जा रहा है 'प्रजानीति' नहीं. राजनीति यानि राज्य करने की नीति. अगर मन में प्रजा की सेवा करने की भावना होती तो शब्द प्रजानीति प्रयोग करते. 

कुछ प्रदेशों में चुनाव की घोषणा हो गई है. अगले वर्ष लोक सभा के चुनाव भी होंगे. भारतीय मतदाताओं के लिए यह एक अवसर हे यह मुद्दे उठाने का, और इन राजनीतिबाजों से जवाब मांगने का. इस बार वोट देने से पहले कुछ बातें स्पष्ट कर लेना जरूरी है. आप क्या सोचते हैं इस बारे में? 

Wednesday, October 29, 2008

कौन क्या कहता है?

बाज़ार में हर चीज महंगी है, 
कहता है आम आदमी, 
बाज़ार में मंदी है,
कहता है अर्थशास्त्री. 

घर में कह दी,
एक अर्थशास्त्री ने यह बात,
पत्नी ने बेलन चला दिया,
अस्पताल में बिताई,
अर्थशास्त्री ने वह रात.  

Saturday, August 23, 2008

कुछ परिभाषाएं

नेता : वह शख्स जो अपने देश के लिये आपकी जान की कुर्बानी देने के लिये हमेशा तैयार रहता है।

पड़ोसी : वह महानुभाव जो आपके मामलों को आपसे ज्यादा समझते हैं।

शादी : यह मालूम करने का तरीका कि आपकी बीबी को कैसा पति पसन्द आता।

विशेषज्ञ : वह आदमी है जो कम से कम चीजों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानता है।

ज्ञानी : वह शख्स जिसे प्रभावी ढंग से, सीधी बात को उलझाना आता है।

सभ्य व्यवहार : मुंह बन्द करके जम्हाई लेना ।

आमदनी : जिसमें रहा न जा सके और जिसके बगैर भी रहा न जा सके।

राजनेता : ऐसा आदमी जो धनवान से धन और गरीबों से वोट इस वादे पर बटोरता है कि वह एक की दूसरे से रक्षा करेगा।

आशावादी : वह शख्स है जो सिगरेट मांगने पहले अपनी दियासलाई जला ले।

नयी साड़ी : जिसे पहनकर स्त्री को उतना ही नशा हो जितना पुरुष को शराब की एक पूरी बोतल पीकर होता है।

मनोवैज्ञानिक : वह व्यक्ति, जो किसी खूबसूरत लड़की के कमरे में दाखिल होने पर उस लड़की के सिवाय बाकी सबको गौर से देखता है।

दूसरी शादी : अनुभव पर आशा की विजय।

कूटनीतिज्ञ : वह व्यक्ति जो किसी स्त्री का जन्मदिन तो याद रखे पर उसकी उम्र कभी नहीं।

Monday, August 18, 2008

क्या इस देश के मुकद्दर में केवल समझौता सिंह ही लिखे हैं?

मैंने अपने एक मित्र से पूछा, 'अगर तुम प्रधान मंत्री बन गए तो सबसे पहला काम क्या करोगे?'
मित्र ने जवाब दिया, 'उन सारे रास्तों का चक्कर लगाऊँगा जहाँ अक्सर ट्रेफिक जाम में फंसता था. क्या मजा आएगा गुरु खाली सुनसान सड़कों पर ड्राइविंग का!'
'और दूसरा काम?' मैंने पूछा.
मित्र अत्यन्त उत्साह से बोला, 'सारे राष्ट्रिय राजमार्गों का चक्कर लगाऊंगा. जानते हो प्रधान मंत्री को टोल टेक्स माफ़ है'.
'और तीसरा काम?', मैं अधीरता से बोला.
'यह तुम बताओ, तुम्ही ने मुझे प्रधान मंत्री बनाया है', उसने गेंद मेरे कोर्ट में डाल दी.
'अरे भई अपने मंत्रीमंडल में किसे लोगे?' मैंने कहा.
'किसे लूँगा यह बादमें देखेंगे, पहले यह पूछो कि किसे नहीं लूँगा', वह मुस्कुराया.
'अच्छा चलो यही पूछा', मैं बोला.
'यार बड़ी लम्बी लिस्ट है. इन साठ सालों में ऐसे नेताओं की संख्या बहुत ज्यादा हो गई है जिन्हें में अपने मंत्रिमंडल में किसी हालत में नहीं ले सकता. अच्छे लोग तलाशने में काफ़ी समय लगेगा'.
'फ़िर सरकार कैसे चलेगी?', मैंने चिंता व्यक्त की.
'बाबू चलाएंगे', वह लापरवाही से बोला, 'यह साले मंत्री तो सिर्फ़ माल काटते हैं. असली सरकार तो बाबू चलाते हैं. सुप्रीम कोर्ट भी बाबुओं के सामने नतमस्तक होता है'.
'यह साझा सरकार है, समर्थन देने वाली पार्टियों के मालिक जिसे चाहेंगे मंत्री बनाना पड़ेगा, वरना सरकार एक दिन भी नहीं चलेगी'. मैंने उसे सावधान किया.
'न चले साली सरकार', वह बोला, 'मैं कोई समझौता सिंह हूँ क्या जो इन सालों की सुनूंगा'.
'यह तेरे ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव ले आयेंगे', मैंने उसे डराया.
'ले आने दे सालों को अविश्वास प्रस्ताव. लोक सभा में सारी दुनिया के सामने नंगा कर दूँगा सालों को, और इस्तीफा स्पीकर की मेज पर पटक कर बाहर निकल जाऊंगा. यह कहते हुए वह कमरे से बाहर निकल गया.
'अरे सुन तो', मैं उस के पीछे भागा.
'किसी और को पकड़ ले प्रधान मंत्री बनने के लिए', और वह लो फ्लोर वाली बस में चढ़ गया.
मैंने ठंडी साँस ली, 'क्या इस देश के मुकद्दर में केवल समझौता सिंह ही लिखे हैं?'

Saturday, August 16, 2008

आप क्या इन्हें वोट देंगे?

पति - नेताजी ने बहुत अच्छा भाषण दिया स्वतंत्रता दिवस पर.
पत्नी - भाषण दिया या पढ़ कर सुनाया?
पति - एक ही बात है.
पत्नी - नहीं एक बात नहीं है. भाषण में बहुत सी बातें उन के ख़ुद के लिए भी थीं. अच्छा होता वह उन बातों को पढ़ लेते और अमल करते.
पति - मतलब, दूसरों को नसीहत पर ख़ुद मियां फजीहत?


पति - साठ साल के तुष्टिकरण पर पानी फ़िर गया. सुबह तिरंगा और शाम को अलगाववादियों का झंडा. खाया देश का गाया विदेश का.
पत्नी - धर्म की राजनीति करेंगे तो यही होगा.
पति - पर वह तो ख़ुद को धर्म निरपेक्ष कहते हैं. कल दूसरों को नसीहत भी दी उन्होंने कि धर्म पर राजनीति न करें.
पत्नी - चोर भीड़ में शामिल होकर पीछा करने वाला बन जाता है. दूसरों पर ऊँगली उठाता है और चिल्लाता है चोर चोर.
पति - मतलब, धर्म निरपेक्षता के परदे में कम्युनल?


मनमोहन जी की साफ़-सुथरी, हरी-भरी और सुरक्षित दिल्ली में रहने वाली पत्नियाँ आज कल बहुत परेशान हैं. एक ऐसी ही पत्नी ने अपने बाज़ार से सामान लेने जाते वरिष्ट नागरिक पति से कहा -
देखो जी,ब्लू लाइन बस से दूर रहना पता नहीं कब कुचल दे?
सड़क पर मत चलना, पता नहीं कहाँ गड्ढा हो?
फुटपाथ पर मत चलना, पता नहीं कौन दुकानदार ऐतराज कर दे?
बीआरटी कारीडोर की तरफ़ से मत जाना, पता नहीं कब निगल ले?
बिल्डिंग के बगल में मत चलना पता नहीं कब गिर पड़े?
पुलिस दिखे तो रास्ता बदल लेना, पता नहीं किस बात पर धर ले?
कोई वीआइपी आस-पास हो तो मां दुर्गा से सुरक्षा की प्रार्थना करना. में भी करूंगी.
पति घबरा गए और घर वापस आ गए. बोले, 'में नहीं जाता, घर में रहना ठीक है.'
पत्नी बोली, 'पर इस में भी खतरा है, पता नहीं कौन आकर लूट ले और मार दे'.

Sunday, August 10, 2008

यार चिंता क्यों करते हो?

नेता जी पिछले कुछ दिनों से परेशान थे। न ठीक से नींद आ रही थी। न ही ठीक से खा-पी पा रहे थे। गम सुम से बैठे रहते थे। घर वाले परेशान थे। डाक्टर को बुलाया गया। उस ने कहा मुझे नहीं ज्योतिषी को बुलाओ। चुनाव आ रहे हें। पाँच साल तक जनता के लिए कुछ न करने वाले खाऊ नेताओं को यह समस्या होती ही है। इस में कुछ असामान्य नहीं है।

ज्योतिषी को बुलाया गया। उस ने कहा चिंता की कोई बात नहीं है। आज कल यह बीमारी इन जैसे सभी नेताओं को हो रही है। आने वाले चुनाव में टिकट मिलेगा या नहीं, अगर मिल गया तो जीतेंगे या नहीं, यह चिंता सब को खाए जा रही है। लेकिन चिंता करने की जरूरत नहीं है। आख़िर हम ज्योतिषी किस लिए हें? वही पुरानी दवा काम आएगी। हर पार्टी के इन जैसे नेताओं की एक गोपनीय मीटिंग बुलाई जायेगी। उस में फ़ैसला किया जायेगा कि जो जीतेगा वह बाकी सब का ख्याल रखेगा। हर बार ऐसा हुआ है, इस बार भी ऐसा ही होगा। नेता-नेता मौसेरे भाई होते हें। और फ़िर जनता साली किसी को तो चुनेगी। उस के सामने रास्ता ही क्या है?

नेता जी कराहे और बोले कि समस्या इतनी आसन नहीं है जितनी आप समझ रहे हें। पिछली बार जो हारा था उस का मैंने कोई ख्याल नहीं रखा। टिकट तो मुझे मिलेगा नहीं, यह पक्का है। पार्टी मुझ से खुश नहीं है। और जनता, वह तो मुझे मारने को दौड़ रही है। अब जो भी जीतेगा तो वह मेरा ख्याल क्यों रखेगा?

'अब भुगतो', नेता जी की पत्नी चिल्लाईं, 'कितना समझाया मैंने, देखो बेईमानी में बेईमानी मत करो। चोरों के भी कुछ उसूल होते हें। जनता से तो विश्वासघात कर ही रहे हो, अपने साथी नेताओं से तो विश्वासघात मत करो। नेता ही नेता के काम आता है। पर यह माने ही नहीं'।

ज्योतिषी जी ने गर्दन हिलाई, 'भाभी जी ठीक कह रही हें। ऐसा आपने क्यों किया? अब तो मामला उलझ गया।बैसे मैं कोशिश करूंगा कुछ हो जाए'।

उस रात दूसरे नेता का फ़ोन आया। उसने कहा, 'यार चिंता क्यों करते हो, तुम ने राजनीति के सिद्धांतों का पालन नहीं किया पर हम तो करते हें। बस ऐसा करो, कल एक प्रेस काफ्रेंस बुलाओ और मेरे पक्ष में बयान दो। कहो कि तुम्हें टिकट नहीं चाहिए। में तुम्हारा ख्याल रखूंगा'।

नेता जी ने गर्दन हिलाई। और कोई रास्ता भी नहीं था। मरता क्या न करता। किसी ने सच कहा है, जनता को धोखा दे कर तो बच सकते हो, पर दूसरे नेता को धोखा देकर नहीं।

Thursday, August 7, 2008

मैंने तय कर लिया है किसे वोट दूँगा

पिछले दिनों विश्वास मत पर लोक सभा में जो हुआ उसके बाद मैंने एक फ़ैसला किया है। आज उस फैसले के बारे में आप सब को बताता हूँ। आप लोग चाहें तो आप भी ऐसा ही फ़ैसला कर सकते हें।

जानते तो सब थे। मानते भी सब थे। पर अपनी आंखों से देखा नहीं था। इसका फायदा उठाकर यह नेता बच जाते थे। अब जब अपनी आंखों से यह सब लोक सभा में देख लिया तो किसी शक की कोई गुंजाइश ही नहीं रही। यह नेता जो हमारे वोटों पर चुने जाते हें, अपने वोट कम-से-कम तीन करोड़ में बेचते हें. अब यह तो सरासर बेईमानी हुई कि हमारा वोट तो फ्री में ले जाओ और अपने वोट को तीन करोड़ में बेचो। अरे यह हमारा ही तो वोट है जो इन नेताओं को इस लायक बनाता है कि वह अपना वोट बेच सकें।

इस लिए मैंने फ़ैसला किया है कि जो मुझे मेरे वोट की सबसे ज्यादा कीमत देगा मैं अपना वोट उसे ही दूँगा। अमर सिंह की तरह मैं दूसरों के लिए एजेंट का काम भी करूंगा। मेरे अपने घर में ही ६ वोट हें। आप में से जो चाहें उनके लिए भी मैं भाव-ताव कर सकता हूँ।

आप सबसे प्रार्थना है कि मेरे इस संदेश को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं और भारत में प्रजातंत्र को मजबूत करें।

Sunday, August 3, 2008

कुछ टिप्पणियाँ जों कवितायें बन गई

शीला दीक्षित ने कहा,
कहाँ है मंहगाई?
मुझे तो आज तक मिलने नहीं आई,
न ही किसी नागरिक ने फोन किया,
कि शहर में मंहगाई है आई,
चुनाव आए तो बहकाने लगे जनता को,
इन लोगों को शर्म भी नहीं आई.

राजनीति में चांदी के जूते नहीं मारे जाते सबको,
अधिकाँश को तो मारे जाते हैं प्रजातंत्र के जूते,
वह भी भिगोकर पानी में,
और उनकी आवाज भी नहीं होती,
मारने वाला राजनेता,
मार खाने वाला आम आदमी,
वह जूते मारें और तुम खाए जाओ,
यह गीता का ज्ञान नहीं है,
गीता कहती है संघर्ष करो,
अन्याय के ख़िलाफ़, जुल्म के ख़िलाफ़,
एहसानफ़रामोशी, विश्वासघात के ख़िलाफ़,
कर्म करो, वह फल देगा, उसका वादा है यह,
पर तुम कर्म तो करो.

छोटो-मोटी चोरी छोड़ो नेता बन जाओ,
एक वोट डालोगे तीन करोड़ मिलेंगे,
मान्यवर कहलाओगे अलग से,
अगर सबको पता भी चल गया तो क्या होगा?
लोक सभा में रिश्वत लेना अपराध नहीं है,
आज पुलिस डंडे मारती है,
कल सलाम करेगी नेता जी को,
आज टू व्हीलर चुराते हो,
कल आगे पीछे होंगी फोर व्हीलर,
भइया मौका है हाथ से मत जाने दो,
जल्दी चुनाव होंगे,
करो एक दो मर्डर,
ले लो एंट्री पोलिटिक्स में.

सरकार जीत गई है विश्वास मत,
एटमी करार लाएगा विजली,
हर घर में, हर गाँव, हर शहर में,
शीला दीक्षित भी खुश,
बिना विजली के परेशान दिल्ली के निवासी भी खुश,
राहुल गाँधी भी खुश,
कलावती भी खुश,
मनमोहन खुश कुर्सी बच गई,
अमर सिंह खुश मुक़दमे वापस,
सोरेन खुश कुर्सी मिल गई,
कितने सारे खुश बन गए करोड़पति,
देश प्रगति के रास्ते पर अग्रसर है,
सब खुश हैं, तुम क्यों नाखुश हो,
सब आगे जा रहे हैं, तुम घिसट रहे हो,
बेबकूफ कहीं के.

Friday, August 1, 2008

क्या मनमोहन सिंह ने वोट डाला था?

आज एक पोस्ट पढ़ कर एक बात दिमाग में आई, शिवराज पाटिल, प्रफुल पटेल, मनमोहन सिंह को तो जनता ने नहीं चुना था, क्या इन्होनें लोक सभा में विश्वास मत पर वोट दिया था? यह सब लोक सभा के सदस्य नहीं हैं और मतदान लोक सभा में हुआ था. यह सरकार में मंत्री हैं, मनमोहन सिंह तो प्रधान मंत्री हैं, पर लोक सभा को इस सरकार पर विश्वास है क्या ऐसा वोट यह सब
दे सकते हैं?

क्या कोई ब्लागर इस बारे में जानकारी दे सकते हैं?

Wednesday, July 23, 2008

बेशर्मी के विश्व रिकार्ड्स

देख रही थी सारी दुनिया,
कपूत कर रहे थे शर्मिंदा मां को,
बना रहे थे रिकार्ड पर रिकार्ड,
बेईमानी, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अशुचिता के,
तालियाँ बज रही थीं, वाह-वाह हो रही थी,
अपमानित हो रही थी भारत मां,
अपने ही बेटों द्बारा.


राहुल गाँधी ने सुनाई कहानी एक कलावती की,
जिसका भविष्य सुरक्षित होगा परमाणु करार से,
खूब तालियाँ बजीं, चमचे चिल्लाये,
देश का भविष्य सुरक्षित है,
इस भावी प्रधानमंत्री के हाथों में,
पर कौन है यह कलावती?
बताया एक अखबार ने,
कलावती है एक गरीब विधवा,
सात बेटिओं और दो बेटों की मां,
उधार के भार से कर ली थी आत्महत्या उसके पति ने,
खेती करता था पर किसान नहीं था,
सरकारी परिभाषा ही कुछ ऐसी है,
इस लिए नहीं मिली उसे कोई सहायता,
न ही की उसकी सहायता राहुल गाँधी ने,
न राहुल की पार्टी ने,
न राहुल की पार्टी की आम आदमी की सरकार ने,
बस उसकी कहानी सुना दी,
वह भी अधूरी और निज स्वार्थसिद्धि के लिए.
कलावती की झोपड़ी में बिजली नहीं है,
उसके किराए के खेत में पम्प नहीं है,
क्या करेगी वह परमाणु बिजली का?
कब आएगी यह बिजली उसके गाँव में?
क्या वह जीवित रहेगी तब तक?
झोपड़ी की छत का हर हिस्सा टपकता है वारिश में,
दो वक्त की रोटी बहुत मुश्किल से जुटा पाती है,
यह सब नहीं बताया राहुल ने,
राहुल ने यह भी नहीं बताया,
कलावती ने दो दिन से कुछ नहीं खाया,
पर राहुल ने उसे रोटी नहीं भिजवाई,
बस कहानी सुना दी उसकी लोकसभा में,
राहुल की महानता और ज्यादा महान हो गई.


जो वोटिंग से गायब हो गए,
या जिन्होनें करार के ख़िलाफ़ वोट डाला,
ya जिन्होनें करार के पक्ष में वोट डाला,
क्या उन्होंने परमाणु करार का मसौदा पढ़ा है?
क्या वह उसे समझ पाये हैं?

मौका है, बदल डालो कानून,
सब प्रधानमन्त्री बनना चाहते हैं,
'एमपी' को कर दो 'पीएम',
हो सकते हैं प्रधानमन्त्री एक नहीं एक हज़ार,
लड़ कर खा रहे हैं देश को,
मिल जुल कर खाएं,
जो जीते चुनाव कहलाये पीएम.

सोमनाथ दा ने बनाया रिकार्ड,
बहस के दौरान मुस्कुराते रहने का,
बार बार देखते थे इलेक्ट्रोनिक बोर्ड को,
मंद-मंद मुस्कुराते थे,
डांटते थे सदस्यों को मुस्कुराते हुए,
कहते थे अपनी सीट पर जाओ, मुस्कुराते हुए,
लगता है, विश्वास मत की जीत पर,
सबसे ज्यादा खुशी हुई सोमनाथ दा को.

मनमोहन जी ने विश्वास मत हासिल किया,
पर ज्यादा वधाइयां मिलीं सोनिया जी को,
कुछ देर खरे रहे वह अकेले,
फ़िर बढ़ गए दरवाजे की तरफ़,
किसी ने नहीं देखा उनका जाना,
जीत में अकेलापन,
कैसा लगा होगा यह अनुभव.

Monday, July 21, 2008

जीते कोई भी, आम आदमी तो हार गया पहले ही

केन्द्र सरकार द्बारा विश्वासमत प्रस्ताव पर २२ जुलाई को मतदान होगा. इस में कौन जीतेगा और कौन हारेगा यह तो समय बतायेगा, पर आम आदमी तो प्रस्ताव रखने से पहले ही हार गया. और उस के साथ हार गई, ईमानदारी, व्यवहार में शुचिता और नैतिकता. आज़ादी के बाद प्रजातंत्र पर यह सबसे बड़ा आघात है. यह आघात उन लोगों द्बारा किया गया है जिन्हें जनता ने प्रजातंत्र के रखवालों के रूप में अपना प्रतिनिधि चुना था. जनता ने जिनमें अपना विश्वास प्रकट किया था कि वह ईमानदारी, व्यवहार में शुचिता और नैतिकता के आदर्श स्थापित करेंगे. आज उन्हीं लोगों ने जनता के साथ अभूतपूर्व विश्वासघात किया है. सबने ख़ुद को जनता के विश्वास के अयोग्य साबित कर दिया है. कोई फर्क नहीं है किसी में. बस लेबल अलग हैं. मेरे पास उन्हें कहने को बस इतना ही है - डूब मरो चुल्लू भर पानी में अगर कुछ भी इंसानियत तुममें बाकी है.

Saturday, June 21, 2008

नेताजी वोट मांगने आये

नेता जी बोले, "मुझे वोट दीजिये".
मैंने कहा, "क्यों?".
" हम आपका प्रतिनिधित्व करेंगे", उन्होंने समझाया.
मैंने कहा, "क्यों?".
"क्या मतलब?, मेरी समझ में नहीं आया", वह बोले.
मैंने कहा, "क्यों?".
"अरे आप हर बात का जवाब क्यों में क्यों देते हैं?", उन्होंने पूछा.
"क्योंकि आप बात ही ऐसी करते हैं", मैंने कहा.
"क्यों, क्या ग़लत बात कह दी मैंने?", नेताजी बुरा मानते हुए बोले.
"आपने कोई ग़लत बात नहीं कही. आपने वही कहा जो सारे नेता कहते हैं", मैंने कहा.
"तो फ़िर क्यों, क्यों की रट क्यों लगा रखी है आपने?", नेताजी फ़िर बुरा मानते हुए बोले.
अब बात की गेंद फ़िर मेरे पाले में थी. मुझे लगा कि इस बार बात सिर्फ़ क्यों कहने से नहीं टलेगी. विस्तार में जवाब देना होगा. नेताजी इतनी आसानी से टलने वाले नहीं लगते.
मैंने कहा, "पहले आप बैठिये".
"लीजिये बैठ गया", उन्होंने कहा.
"अब मेरी बात ध्यान से सुनिए", मैंने कहा, "आपने मुझे वोट देने को कहा, मैंने पूछा कि मैं आपको क्यों वोट दूँ, आपने कहा आप मेरा प्रतिनिधित्व करेंगे, मैंने कहा आप मेरा प्रतिनिधित्व क्यों करेंगे, फ़िर आपने कहा कि आप नहीं समझे, मैंने पूछा क्यों नहीं समझे, कृपया बताइये कि अब तो आप समझ गए ना?".
"क्या मैं एक ग्लास पानी पी सकता हूँ?", उन्होंने परेशानी से कहा.
मैंने उन्हें एक ग्लास पानी दिया. उन्होंने पानी पिया, रुमाल से माथा पोंछा और बोले, "अच्छा अब में चलता हूँ".
"अरे आप तो इतनी जल्दी घबरा गए, मैं तो आपसे एक घंटा बात करना चाहता था", मैंने कहा.
"नहीं आज के लिए इतना काफ़ी है, पिछले तीन चुनावों में किसी ने ऐसे सवाल नहीं पूछे, हम कहते थे हमें वोट दीजिये और लोग कहते थे जरूर देंगे, पर अब तो लगता है लोग बदल गए हैं", बोलते-बोलते वह उठे और तेजी से निकल गए.
"यह क्या किया आपने?", मेरी पत्नी ने पूछा, "किसी न किसी को तो वोट देंगे ही, कह देते आपको देंगे, बेचारे खुश हो जाते".
"नहीं, मैं उन्हें खुश नहीं करना चाहता, मैं उन्हें चिंतित करना चाहता हूँ, मैं उन्हें यह एहसास दिलाना चाहता हूँ कि वोट अब इतनी आसानी से नहीं मिलेगा, कुछ काम करना होगा उस के लिए", मैंने पत्नी को समझाया.
"आप की बातें आप ही जानो, मैं रसोई में जाती हूँ, बहुत काम पड़ा है", और वह भी चल दीं.
मैं सोचता रहा. मुझे लगा इस बार चुनाव की शुरुआत अच्छी हुई है.

Saturday, June 14, 2008

नेताजी उवाच


"जो कुछ अच्छा हुआ,
वह हमने किया,
जो कुछ बुरा हुआ,
वह किया अधिकारियों ने",
यह सीधी बात नहीं समझती जनता,
ख़ुद भी होती है परेशान,
हमें भी करती है परेशान.
__________________________
कुछ मत देखो,
कुछ मत सुनो,
कुछ मत कहो,
बस हमें वोट देते रहो,
भूल गए गाँधी जी ने क्या कहा था?
___________________________
हमारी सरकार करती है रोजगार,
बेचती है पानी,
अगली चीज बेचेगी सरकार,
हवा, सूरज की धूप या फूलों की खुशबू।
___________________________
हमारी सरकार मुफ्त बाँटती है नफरत,
धर्म, भाषा, जाति, प्रदेश,
फैलाओ इसे और,
सरकार के काम में हाथ बटाओ।

Thursday, May 29, 2008

यह कौन है वैश्य बिरादरी का ठेकेदार?

आज मैंने अखबार में पढ़ा कि समाजवादी पार्टी का एक नेता बहुजन समाज पार्टी में दाखिल हो गया है. समाचार पूरा पढ़ कर पता चला कि यह नेता बिक गया है. काफ़ी कीमत दे कर ख़रीदा है इसे मायावती ने. उस कीमत की लिस्ट देखिये - एक, आने वाले लोक सभा चुनावों में फरुखाबाद से टिकट, दो, उस के बेटे के लिए हरदोई से उत्तर प्रदेश विधान सभा का टिकट, तीन, राष्ट्रिय जनरल सेक्रेटरी का पद. यह नेता है नरेश अग्रवाल. भारतीय राजनीति पर एक कलंक. यह बिके हुए नेता प्रदेश और देश का दोनों का बंटाधार करेंगे.

अब बदले में यह बिका नेता पार्टी को क्या देगा? उस ने मायावती से बायदा किया है कि वह वैश्य बिरादरी के सारे वोट उन्हें दिलवाएगा. उसने मायावती को अगला प्रधान मंत्री और देश का रक्षक कर्णधार भी कहा है. भारतीय राजनीति पर एक कलंक होने के साथ-साथ यह व्यक्ति वैश्य बिरादरी पर भी कलंक है. किस ने अधिकार दिया इसे वैश्य बिरादरी के वोटों पर? है कौन यह व्यक्ति? मैं एक वैश्य हूँ, मैं इसे नहीं जानता, मैं ऐसे किसी व्यक्ति को वैश्य ही नहीं मानता. यह तो बिकाऊ माल है, जिन्हें जो मर्जी खरीद ले. आज कोई और पार्टी इस से अच्छी कीमत दे दे तो यह उस के हाथ बिक जायेगा, और उसके मालिक को अगला प्रधान मंत्री घोषित कर देगा.

वैश्य बिरादरी को चाहिए कि इसे और इस जैसे सभी बिके हुए राजनीतिबाजों को बिरादरी से बाहर निकाल दे. हुक्का पानी बंद होना चाहिए ऐसे घटिया लोगों का.

Monday, May 19, 2008

कमाल है, यह कुछ भी करें सब माफ़ है!

आज सुबह पार्क में एक सज्जन ने पंजाब केसरी में छपी एक ख़बर की और मेरा ध्यान दिलाया. आप भी देखिये इसे.

लिस्ट में चार ब्राह्मण, चार पंजाबी, एक वैश्य, दो मुसलमान, तीन गुर्जर, दो जाट शामिल हें। हर उम्मीदवार के नाम के आगे उसकी जाति का नाम लिखा है।

जाति की राजनीति का इस से बढ़कर नंगापन क्या हो सकता है? कोई दूसरा अगर जाति की और इंगित कर देगा तो बबाल मच जाएगा. सरकार और पुलिस सब हरकत में आ जायेंगे. राजनीतिबाज चीख चीख कर आसमान सर पर उठा लेंगे. ख़ुद यह पार्टियां कुछ भी करें. हर उम्मीदवार के नाम के आगे उसकी जति का उल्लेख करना क्या चुनावी कानून का उल्लंघन नहीं है? क्या ऐसा करके जति के आधार पर वोट नहीं मांगे जा रहे? पर कौन करेगा कार्यवाही इस पर? सभी तो एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं.

Sunday, May 18, 2008

जो शर्त पूरी करेगा उसे वोट दूँगा

मैं दिल्ली में रहता हूँ. दिल्ली में अगले वर्ष चुनाव होंगे. राजनितिक पार्टियाँ अभी से चुनावी मोड में आ गई हैं. मतदाताओं को भी चुनावी मोड में आ जाना चाहिए. ऐसा लग रहा है कि दलित वोट इस चुनाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे. दलितों को घेरने की तैयारी शुरू हो चुकी है. मायावती और राहुल की मामा दोनों मैदान में उतर आई हैं. मायावती ख़ुद उतरी हैं मैदान में. राहुल की मामा ने मैदान में उतारा है राहुल को .

जब कोई दलितों के लिए कुछ करता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. दोनों मेरे वोट के हक़दार हैं. पर यह कैसे तय किया जाए कि दोनों में दलितों का ज्यादा हमदर्द कौन है? मेरे विचार में दोनों के सामने एक शर्त रखी जाए. राहुल किसी दलित कन्या से विवाह करे. मायावती अपना सारा धन और जायदाद दलितों में बाँट दे. जो शर्त पूरी करेगा उसे वोट दूँगा. पर यह शर्त चुनाव से पहले पूरी होनी चाहिए.

Saturday, April 5, 2008

सत्ता का नशा

कीमतें आसमान छू रही हैं,
कमर तोड़ दी है महंगाई ने,
पार्टी हाई कमान घबरा गई है,
विरोधी पक्ष खूंखार हो रहा है,
पर जब उनसे पूंछा गया,
तो नमक छिड़क दिया उन्होंने जख्मों पर,
तरक्की करती अर्थव्यवस्था मैं,
कीमतें तो बढ़ेंगी ही,
और कोई खास तो नहीं बढ़ी हैं कीमतें,
व्यर्थ ही चिल्ला रहे हैं.

लगता है सत्ता का नशा,
सर चढ़ गया है.
कुछ दिन पहले जो तारीफ़ हुई थी,
प्रधान मंत्री के मुखारविंद से,
उसने और सर चढ़ा दिया लगता है,
प्याज पर बदल गई थी सरकार,
यहाँ तो हर चीज पहुँच के बाहर हो गई है,
आम जनता का आक्रोश,
और उन का घमंड,
देखें कौन जीतता है?

Thursday, April 3, 2008

Negative thought process

उन्होंने उन्हें कुछ कह दिया,
उन्हें बुरा लग गया,
बुरा तो शायद सब को लगता,
पर सब मुख्य मंत्री नहीं हैं,
आम आदमी का बुरा लगना,
कोई खास बात नहीं है भारत मैं,
बुरा लगना तो अधिकार है,
खास आदमी का,

यहाँ वह चूक गए और गलती कर बैठे,
कह दिया कुछ खासमखास को,
पकड़े गए, माफ़ी मांगी,
बेटी भी कहा उन को,
पर मुसीबत मैं पड़ गए,
बहुत कुछ खोना पड़ेगा.

क्यों कह देते हैं लोग ऐसी बातें?
क्या हासिल होता है इस से?
किसी को कुछ कह कर सुख मिलता है क्या?
यदि हाँ, तब तो यह नकारात्मक सोच है.

Saturday, March 29, 2008

Peoples' representatives embarass people

विधान सभा ने चुनाव आयुक्त को जेल भेज दिया,
चुनाव आयुक्त एक संबैधानिक पद है,
इस का कोई विचार नहीं,
अपने पद की गरिमा का ध्यान नहीं,
दूसरे पद की गरिमा भी स्वीकार नहीं,
कौन शर्मिंदा हुआ?
जनता या जन-प्रतिनिधि?

जेल से छूटकर वह अदालत चले गए,
विधान सभा ने एक प्रस्ताव पास कर दिया,
अदालत का कोई नोटिस स्वीकार्य नहीं,
अदालत एक संबैधानिक संस्था है,
इस का भी कोई विचार नहीं,
उसकी गरिमा भी स्वीकार नहीं,
कौन शर्मिंदा हुआ?
जनता या जन-प्रतिनिधि?

विधान सभा एक संबैधानिक संस्था है,
जन-प्रतिनिधि एक संबैधानिक पद,
अपनी मर्यादा का आदर नहीं,
दूसरों की मर्यादा का आदर नहीं,
कोई संयम नहीं, कोई अनुशासन नहीं,
जन-प्रतिनिधिओं का यह व्यवहार,
करता है सिर्फ़ शर्मिंदा जनता को,
जिन्होनें चुना है उन्हें.