एक पत्रकार ने जैन संत आचार्य महाप्रज्ञ से पूछा - 'लोकतंत्र का विकल्प क्या हो सकता है?'
आचार्य ने उत्तर दिया - 'लोकतंत्र का विकल्प क्यों खोजते हो? शासनतंत्र की जितनी प्रणालियाँ हैं, उन में सबसे अच्छा विकल्प है लोकतंत्र. उस की श्रेष्टता अभी खंडित नहीं हुई है. फ़िर विकल्प की खोज किस लिए? विकल्प खोजना चाहिए लोकतंत्र को चलाने वाले हाथों का, जो हाथ लोकतंत्र की डोर थामने में काँप रहे हैं.'
लोकतंत्र ने सत्ता को इतना गतिशील बनाया कि वह जाति, सम्प्रदाय, गरीबी, अमीरी - इन सबसे परे जाकर किसी भी योग्य व्यक्ति का वरण कर सकती है. यह लोकतंत्र के चरित्र का सबसे उजला पक्ष है, किंतु लोकतंत्र को चलाने वाले लोग अभी योग्यता की कोई कसौटी ही निश्चित नहीं कर पाये हैं.
योग्यता की दो कसौटियां हो सकती हैं - चरित्र बल और बौद्धिक छमता. पता नहीं, क्यों लोकतंत्र के साथ अभी इन कसौटियों का मैत्री सम्बन्ध स्थापित नहीं हो रहा है. सत्ता और प्रशासन की कुर्सी पर आसन बिछाने वाले लोगों का अर्थ के प्रति घोर आकर्षण बता रहा है कि लोकतंत्र के सारथि का चरित्र-बल उन्नत नहीं है. अर्जुन को महाभारत की रणभूमि में सारथि मिल गया था. लोकतंत्र का अर्जुन अभी भी सारथि की खोज में है. महाभारत हो रहा है पर अर्जुन को सारथि नहीं मिल रहा है.
(लोकतंत्र - नया व्यक्ति नया समाज से साभार)
3 comments:
बढिया पोस्ट है।
आप लगातार इस मुद्दे पर लिखते रहे हैं । आपकी जनजागरण की मुहिम यकीनन कामयाब होगी । दर असल आज़ादी के बाद की पीढी को लोकतांत्रिक मूल्यों का महत्व ही नहीं मालूम । संस्कार के केन्द्र ,चाहे वो घर हो या स्कूल ,अब व्यावसायिक रंग में रंग चुके हैं । ऎसे में मूल्यहीन राजनीति की जडें मज़बूत हो रही हैं और समाज संस्कार विहीन ।
बहुत खुब कहा आप ने
धन्यवाद
Post a Comment